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वायु प्रदूषण देने लगा देश की अर्थव्यवस्था को चुनौती, सकल घरेलू उत्पादकों की वृद्धि में आ रही निरंतर कमी

Sanjay Chobisa -10 Nov 2023

विशेष आलेख

वर्तमान त्योहारी सीजन के दौरान आर्थिक रंगत धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ ही रही थी कि जहरीली हवा ने लंगड़ी मार दी। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण से भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में साल दर साल लगभग 0.56 प्रतिशत की कमी आ रही है, क्योंकि जीडीपी की गणना में शामिल वस्तुओं एवं सेवाओं पर वायु प्रदूषण नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। आज भारत में वायु प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित स्तर का लगभग 20 गुना और भारत के अपने मानकों से दो गुने से भी अधिक है।

प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण माना जाता है। यह दुनिया में असमय मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण है। इसके कारण सर्दियां आते ही स्मॉग की काली छाया उत्तर भारत के अधिकांश शहरों को अपने दामन में समेट लेती हैं। प्रदूषण का सबसे प्रतिकूल प्रभाव स्वास्थ्य और उत्पादकता पर पड़ता है। दुनिया में कोई भी कार्य मानव संसाधन की बदौलत ही किया जाता है। लेकिन जल, वायु, भूमि और ध्वनि प्रदूषण शरीर को रुग्ण कर देता है, जिससे स्वास्थ्य के मद की लागत बढ़ जाती है और उत्पादकता कम हो जाती है।
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार विकासशील देशों में वायु प्रदूषण के कारण लोग अपने स्वास्थ्य पर अपने कुल खर्च का सात प्रतिशत व्यय करते हैं। ओईसीडी की वायु प्रदूषण से होने वाले आर्थिक नुकसान से संबंधित ताजा रिपोर्ट के अनुसार पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) के कारण पिछले साल दिल्ली में 55 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी जबकि मुंबई में 26 हजार की।

इसी तरह बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद में क्रमशः 12000, 11000 और 11500 लोग असमय मौत के मुंह में समा गए थे। विश्व की सबसे पुरानी स्वास्थ्य पत्रिका द लैंसेट द्वारा गठित लैंसेट कमीशन के नए अध्ययन के अनुसार प्रदूषण के कारण दुनिया भर में वर्ष 2019 में 90 लाख और भारत में 23 लाख से अधिक लोगों की असामयिक मृत्यु हुई, जबकि चीन में 21 लाख से ज्यादा लोग काल का ग्रास बन गए। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 16 लाख से ज्यादा मौतें केवल वायु प्रदूषण के कारण हुई।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर और ग्रीन पीस द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार प्रदूषण के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था को सालाना 15 हजार करोड़ डालर यानी 1.05 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ रहा है। यदि सकल घरेलू उत्पाद के रूप में देखें तो यह नुकसान कुल जीडीपी के 5.4% के बराबर होता है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि प्रदूषण के कारण हर साल न सिर्फ लाखों की संख्या में मौतें हो रही हैं बल्कि अर्थव्यवस्था को देश की जीडीपी का 7% यानी लगभग 14 लाख करोड़ रुपए का नुकसान भी हो रहा है। यह रकम वित्तीय घाटे के कमोबेश दोगुनी बैठती है।

गौर करने की बात है कि दुनिया में विकसित देश जब पर्यावरण से समझौता करते हैं तो यही कहते हैं कि हमें अर्थव्यवस्था को पहले देखना है, बाकी बाद में। अब जब अपने देश में वायु प्रदूषण से देश को हर साल 14 लाख करोड़ रुपए के नुकसान का आंकड़ा निकल कर आ रहा है तो क्या इसका एक मतलब यह नहीं है कि प्रदूषण से जान माल का दोहरा नुकसान हो रहा है? अगर वित्तीय घाटा बढ़ना इतनी बड़ी चिंता की बात है तो प्रदूषण के कारण आर्थिक हानि की चिंता क्या उतनी ही बड़ी नहीं मानी जानी चाहिए?

कई एक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए कामगारों की छुट्टी पर जाने से हर साल लगभग 50 करोड़ श्रम दिवसों का नुकसान हो जाता है। वायु प्रदूषण से होने वाली तरह-तरह की बीमारियों के इलाज पर औसतन 1900 रुपए प्रति व्यक्ति अलग से खर्च होते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण ने नागरिकों के कंधों पर स्वास्थ्य खर्च का कितना बोझ बढ़ा दिया है? क्या इस बात पर हैरत नहीं जताई जानी चाहिए कि देश का सालाना स्वास्थ्य बजट के मुकाबले वायु प्रदूषण से होने वाला नुकसान कई गुना अधिक है?

बताते हैं कि प्रदूषण के कारण मौत और बीमारियों की त्रासदी से निपटने में इसीलिए दिक्कत है क्योंकि स्वास्थ्य क्षेत्र पर ज्यादा खर्च करने की गुंजाइश नहीं बनती। लेकिन जब प्रदूषण से सीधे-सीधे अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होने की बात कही जा रही है तो क्या यह हिसाब नहीं लगाया जाना चाहिए कि प्रदूषण को रोकने या कम करने का कितना खर्च बैठेगा और उससे अर्थव्यवस्था को होने वाला नुकसान कितनी मात्रा में रोका जा सकता है।

अब समय आ गया है कि नफा नुकसान के आंकड़ों पर विस्तार से बहस होनी चाहिए। बहुत संभव है कि पता चले कि पर्यावरण की कीमत पर पैदा होने वाली पूंजी आर्थिक विकास का छलावा है। प्रदूषण से होने वाले नुकसान की मात्रा बताई जाएगी तो बहुत संभव है कि यह भी पता चले कि पर्यावरण से समझौता करके होने वाले औद्योगिक विकास से देश का आर्थिक विकास नहीं बल्कि आर्थिक नुकसान हो रहा है।

दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पर्यावरण को हो रहे नुकसान के कारण ही जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है। इससे वर्षा चक्र गड़बड़ा रहा है। दुनिया की एक बड़ी आबादी के सिर पर पीने का पानी और पर्याप्त कृषि उपज का संकट मंडराने लगा है। अगर इसी तरह पर्यावरण तबाह होता रहा तो आगे चलकर एक आर्थिक दुर्घटना को टालना मुश्किल हो सकता है। पर्यावरण को ताक पर रखकर अंधाधुंध औद्योगिक विकास किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है।

दुनिया के कई देशों ने ऐसी गतिविधियों पर लगाम लगाई है। फ्रांस की राजधानी पेरिस में कई ऐतिहासिक और केंद्रीय स्थानों पर वाहन ले जाने पर पूरी तरह पाबंदी है। निजी वाहनों के लिए सम विषम का तरीका कभी-कभार नहीं बल्कि नियमित रूप से प्रयोग में लाया जाता है।

डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन को 2025 तक कार्बन मुक्त बना देने का ऐलान किया गया है। कोपेनहेगन के बारे में कहा जाता है कि वहां साइकिलों की संख्या वहां की आबादी से अधिक है। जर्मनी के कई शहरों में वहां की सरकार ने अपने नागरिकों के लिए बाइकवेज और ट्रामवेज बनवाए हैं। जर्मनी के कुछ और अनुभव गौरतलब है। वहां जिस व्यक्ति के पास डीजल या पेट्रोल का वाहन नहीं होता उसे सस्ते मकान और सस्ती सरकारी यातायात सुविधा दी जाती है। इसी तरह नीदरलैंड में भी 2025 तक डीजल पेट्रोल पूरे तौर पर खत्म करने की योजना है। फिनलैंड, स्वीटजरलैंड, ब्राजील जैसे कई देशों ने यातायात को बेहतर बनाने का काम अपनी प्राथमिकता में रखा है तथा इसमें भारी निवेश किया है।

गौरतलब है कि जिन देशों ने पर्यावरण के मामले में बड़ी मंजिलें हासिल की है वह आर्थिक विकास से समझौता करने के बाद ही हासिल कर पाए हैं। हम अभी अपनी आर्थिक मजबूरियों का तर्क देकर भले ही इस बात को न माने लेकिन देर सवेर हमें सबक लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

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